Top Ad unit 728 × 90

Breaking News

random

लोग कहते हैं- रात में शराबी पुल पर खड़े होकर लड़कियों को अश्लील इशारे करते हैं, हमारी झुग्गियों पर पेशाब कर देते हैं https://ift.tt/3bZhsze

दिल्ली के किदवई नगर इलाके के पूर्वी छोर से एक बड़ा नाला गुजरता है। इसे कुशक नाला भी कहते हैं। 28 साल के अरुण इसी नाले के किनारे बसी एक झुग्गी बस्ती में पैदा हुए थे। अरुण जब छोटे थे तो इस इलाके में उनकी झुग्गी के इर्द-गिर्द ज़्यादा कुछ नहीं था।

यहां बना आयुष भवन हो, केंद्रीय सतर्कता आयोग का ऑफ़िस हो या एनबीसीसी की बहुमंजिला इमारतें, सब उनके देखते-देखते ही बने। बारापुला फ्लाइओवर को बने तो अभी कुछ ही साल हुए हैं जो उनकी झुग्गी बस्ती के ठीक ऊपर किसी सीमेंट के इंद्रधनुष की तरह उग आया है।

अरुण जैसे-जैसे बड़े हुए, उनके आस-पास का हरा-भरा इलाका कंक्रीट के जंगल में बदलता गया और उनकी झुग्गी बस्ती लगातार इसके बीच सिमटती चली गई। बचपन में वे झुग्गी के पास के जिन खाली मैदानों और पार्कों में खेला करते थे, वहां अब आलीशान कॉलोनियां बन चुकी हैं। इनमें हर समय निजी सुरक्षा गार्ड तैनात रहते हैं और निगरानी रखते हैं कि झुग्गी के बच्चे कॉलोनी के पार्क में खेलने न चले आएं।

इस झुग्गी बस्ती के अधिकतर लोग मजदूर हैं, मिस्त्री हैं या पुताई का काम करते हैं। आस-पास बनी तमाम बड़ी-बड़ी इमारतों को इन्हीं लोगों ने अपनी मेहनत और पसीने से सींच कर खड़ा किया है। लेकिन जैसे-जैसे ये सुंदर इमारतें बनती गई, इन लोगों के लिए अपनी झुग्गी बचाए रखना भी मुश्किल होता गया। शहर के सौंदर्यीकरण में इनकी झुग्गियां बट्टा लगाती थी लिहाज़ा इन्हें हटा लेने का दबाव लगातार बढ़ने लगा।

दिल्ली में क़रीब सात सौ झुग्गी बस्तियां हैं जिनमें रहने वाले परिवारों की कुल संख्या चार लाख से ज्यादा है। इनमें से लगभग 75% झुग्गियां केंद्र सरकार के अलग-अलग विभागों या मंत्रालयों की जमीन पर बसी हैं।

21वीं सदी शुरू होते-होते ये दबाव बेहद बढ़ गया। भारत को राष्ट्रमंडल खेलों का मेज़बान बनना था और इसके लिए दिल्ली को दुल्हन की सजाना शुरू हुआ। इस सजावट में झुग्गियां बड़ा रोड़ा बन रही थी लिहाज़ा एक-एक कर कई झुग्गियां गिराई जाने लगी।

अरुण बताते हैं, ‘कुछ झुग्गी वालों का पुनर्वास हुआ और बाकी सबको बिना किसी पुनर्वास के ही उजाड़ दिया गया। हमें भी कह दिया गया था कि दिल्ली छोड़ कर चले जाओ।’

इसी झुग्गी के रहने वाले 60 वर्षीय महेंद्र दास याद करते हैं, ‘उस वक्त शीला दीक्षित मुख्यमंत्री हुआ करती थी। हम उसके पैरों में गिर गए थे और बहुत गिड़गिड़ाए थे कि हमारे घर मत उजाड़ो। लेकिन, उसने हमारी एक न सुनी और पूरी बस्ती पर बुलडोजर चढ़ा दिया। कई साल से जोड़-जोड़ जो बनाया था वो एक ही बार में रौंद दिया गया। कई रात हम अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ सड़कों पर सोए।’

वक्त बीता तो महेंद्र दास और उनकी झुग्गी वालों के घाव भी धीरे-धीरे भरने लगे। इन लोगों ने उसी नाले के किनारे एक बार फिर अपना आशियाना बसा लिया, जहां से इन्हें उखाड़ दिया गया था।

महेंद्र की पत्नी गीता दास कहती हैं, ‘झुग्गी में कौन रहना चाहता है? यहां बहुत दिक्कत होती है। बरसात में नाले का सारा गंदा पानी हमारे घरों में भर जाता है। जब से ये बारापुला बना है, दिक्कत और भी बढ़ गई है। रात में कई बार शराबी इस पुल पर खड़े होकर लड़कियों को अश्लील इशारे करते हैं, हमारी झुग्गियों पर पेशाब कर देते हैं और कूड़ा-कचरा-बियर की बोतलें हमारे ऊपर फेंकते हैं। लेकिन, यहां कम से कम हमारे सर पर छत है इसलिए झुग्गी में रहते हैं।’

ऐसी नारकीय स्थिति में जीने को मजबूर इन झुग्गी वालों के लिए बीता साल कुछ खुशियां लेकर आया। दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड यानी डूसिब ने तय किया कि इन लोगों का पुनर्वास होगा और इन्हें झुग्गी के बदले फ्लैट आवंटित किए जाएंगे। इसके लिए झुग्गियों का सर्वे किया गया और लोगों से पुनर्वास की रक़म भी जमा करवाई गई। अनुसूचित जाति के लिए 31 हजार रुपए और सामान्य वर्ग के लिए एक लाख 42 हजार की रक़म तय की गई।

इस झुग्गी के लगभग सभी लोग यह रक़म जमा कर चुके हैं। लेकिन क़रीब डेढ़ साल बीत जाने के बाद भी जब आगे कोई कार्रवाई नहीं हुई तो इन लोगों मन में कई सवाल उठने लगे हैं। ये सवाल इसलिए भी मज़बूत होते हैं क्योंकि दिल्ली में हजारों लोग ऐसे भी हैं जो बीते 12-13 साल से पुनर्वास की राह देख रहे हैं और जिनका पुनर्वास अदालत की फाइलों में कहीं उलझ कर रह गया है। राजेंद्र पासवान ऐसे ही एक व्यक्ति हैं।

राजेंद्र राजघाट के पीछे यमुना किनारे बसी एक झुग्गी बस्ती में रहा करते थे। साल 2007 में जब यह झुग्गी बस्ती गिराई गई तो इन लोगों से पुनर्वास का वादा किया गया। इसके लिए राजेंद्र पासवान ने उस दौर में 14 हजार रुपए का भुगतान भी किया और जमीन आवंटित होने का इंतजार करने लगे। उनका ये इंतजार आज तक ख़त्म नहीं हुआ है। उनके साथ ही उस बस्ती के क़रीब नौ सौ अन्य परिवार भी इसी इंतजार में बीते 13 सालों से आस लगाए बैठे हैं।

झुग्गी के लोग शहर में ही मजदूरी करते हैं और इनकी महिलाएं आस-पास की कोठियों या बड़ी इमारतों में घरेलू काम के लिए जाती हैं।

डूसिब के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में कुल 45,857 ऐसे फ्लैट या तो बन चुके हैं या दिसम्बर 2021 तक बनकर तैयार हो जाएंगे, जिनमें झुग्गी बस्ती के लोगों को बसाया जाना है। इनमें से अधिकतर फ्लैट राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान ही बनाए गए थे जब तेजी से दिल्ली की झुग्गियां गिराई जा रही थी। लेकिन, इतने फ्लैट होने के बावजूद भी राजेंद्र पासवान जैसे लोगों को पुनर्वास के लिए सालों-साल इंतजार क्यों पड़ रहा है?

इस सवाल के जवाब में डूसिब के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘दिल्ली में झुग्गियों के पुनर्वास में कई अलग-अलग विभागों की भूमिका होती है। डूसिब भले ही पुनर्वास के लिए नोडल एजेंसी है लेकिन इसके अलावा रेलवे, डीडीए और दिल्ली कैंटोनमेंट बोर्ड जैसी केंद्रीय एजेंसियों की भी अहम भूमिका होती है। नियम ये है कि जिसकी जमीन पर झुग्गियां हैं उसी एजेंसी को पुनर्वास के लिए भुगतान करना होता है।’

ये अधिकारी आगे कहते हैं, ‘प्रत्येक झुग्गी के पुनर्वास में साढ़े सात लाख से लेकर साढ़े 11 लाख रुपए तक का खर्च होता है। फ्लैट तो बने हैं लेकिन जब तक कोई एजेंसी ये रक़म नहीं चुकाती, फ्लैट आवंटित नहीं हो सकते। इसीलिए कई मामलों में सालों-साल तक यह प्रक्रिया लटकी ही रह जाती है।’

दिल्ली में क़रीब सात सौ झुग्गी बस्तियां हैं जिनमें रहने वाले परिवारों की कुल संख्या चार लाख से अधिक बताई जाती है। इनमें से लगभग 75% झुग्गियां केंद्र सरकार के अलग-अलग विभागों या मंत्रालयों की जमीन पर बसी हैं। मसलन रेलवे, रक्षा मंत्रालय और डीडीए की जमीनों पर। इनके अलावा 25 % झुग्गियां दिल्ली सरकार की जमीनों पर हैं।

इस लिहाज़ से देखा जाए तो दिल्ली में झुग्गी बस्तियों के पुनर्वास की 75% जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है जिनकी जमीनों पर 75% झुग्गियां हैं। डूसिब के अधिकारी दावा करते हैं कि बीते पांच सालों में उन्होंने 15 झुग्गी बस्तियों का पुनर्वास सफलता से कर दिया है। लेकिन झुग्गियों के पुनर्वास के ये कथित सफल प्रयोग दिल्ली में खोजने से भी नहीं मिलते।

सामाजिक कार्यकर्ता और झुग्गी बस्ती वालों के लिए मज़बूती से आवाज़ उठाने वाले दुनू रॉय बताते हैं, ‘सरकार की पुनर्वास नीति में बहुत ज़्यादा खामियां हैं इसलिए ये पुनर्वास कभी सफल नहीं हो पाता।’ वे कहते हैं, ‘झुग्गी के लोगों के लिए अपनी झुग्गी सिर्फ़ रहने का ही नहीं बल्कि काम का भी ठिकाना होती है। झुग्गी बस्ती में लोग अपनी दहलीज़ और गलियों में ही छोटे-छोटे कई काम करते हैं।

लेकिन फ्लैट में न तो दहलीज़ का इस्तेमाल हो सकता है और न गलियारों का। ऊपर से ये फ्लैट इतने छोटे होते हैं कि इनमें किसी का भी गुज़ारा नहीं हो सकता। ये फ्लैट बनाए भी शहर से दूर गए हैं इसलिए भी यहां लोग रहना पसंद नहीं करते क्योंकि वहां उनके लिए खाने-कमाने के कोई साधन ही नहीं है।’

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली की 140 किलोमीटर रेलवे लाइन के सेफ्टी ज़ोन में बनी क़रीब 48 हजार झुग्गियों को तोड़ने का आदेश दिया था।

दुनू रॉय सरकार की नीयत पर भी सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं कि सरकारें भी नहीं चाहती कि ये झुग्गी वाले ठीक से बस जाएं। क्योंकि, अगर ये अच्छे से बस गए तो सस्ता श्रम जो इनसे मिलता है, वो कहां से आएगा। झुग्गी के लोग शहर में ही मज़दूरी करते हैं और इनकी महिलाएं आस-पास की कोठियों या बड़ी इमारतों में घरेलू काम के लिए जाती हैं।

ये लोग शहर से दूर कैसे रह सकते हैं। इसलिए जिन्हें फ्लैट मिलते भी हैं वो इसे बेचने को मजबूर हो जाते हैं। बिल्डर इन झुग्गी वालों से सस्ते दामों पर ये फ्लैट ख़रीद लेते हैं और फिर तीन-चार फ्लैट को मिलाकर एक रहने लायक़ फ्लैट तैयार करके उसे महंगे दामों पर बेच देते हैं।

दिल्ली में क़रीब 45 हजार फ्लैट बन जाने के बाद भी उनमें झुग्गी वालों को नहीं बसाया जा सका है। उसका एक बड़ा कारण इनकी शहर से दूरी भी है। इसे ही देखते हुए साल 2015 में दिल्ली सरकार ने पुनर्वास नीति में बदलाव किया था। इस नीति में तय हुआ है कि अब झुग्गी वालों का पुनर्वास झुग्गी के पांच किलोमीटर के दायरे में ही किया जाएगा।

इस नियम को काफ़ी प्रभावशाली तो माना जा रहा है लेकिन ये धरातल पर उतर पाएगा, इसका यक़ीन फ़िलहाल कम ही लोगों को है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली की 140 किलोमीटर रेलवे लाइन के सेफ्टी ज़ोन में बनी क़रीब 48 हजार झुग्गियों को तोड़ने का आदेश दिया था।

लेकिन, सोमवार को एक प्रेस नोट जारी करते हुए उत्तर रेलवे ने कहा है कि उनके अधिकारी लगातार दिल्ली और केंद्र सरकार के संबंधित विभागों से चर्चा कर रहे हैं और जब तक कोई ठोस फैसला नहीं ले लिए जाता तब तक ये झुग्गियां नहीं तोड़ी जाएँगी। ये सूचना रेलवे लाइन के पास बसे 48 हजार झुग्गी वालों के लिए थोड़ी राहत लेकर आई है।

लेकिन, इसके बावजूद भी झुग्गी वालों के पिछले अनुभव उन्हें परेशान होने के कई कारण दे देते हैं। महेंद्र दास जैसे सैकड़ों लोग बिना किसी पुनर्वास के झुग्गी टूटने का दर्द पहले भी झेल चुके हैं और राजेंद्र पासवान जैसे सैकड़ों अन्य लोग झुग्गी टूटने के 13 साल बाद भी पुनर्वास की बाट जोहते जिंदगी बिता रहे हैं। ऐसे में इन लोगों में स्वाभाविक डर है कि जब 12-13 साल पहले अपनी झुग्गियां खाली कर चुके लोगों का ही पुनर्वास अब तक पूरा नहीं हुआ तो इनका पुनर्वास कैसे और कब तक हो सकेगा।

यह भी पढ़ें :

1. दिल्ली का सबसे बड़ा वोट बैंक, ये झुग्गियां / यहां के लोग कहते हैं, मोदी जी को हमारी झुग्गी टूटने की फिक्र नहीं, लेकिन कंगना के घर में तोड़फोड़ पर पूरा देश परेशान है



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
People say, standing on the drunken bridge in the night, making indecent gestures to girls, urinating on our slums.


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/3mmB1GI
लोग कहते हैं- रात में शराबी पुल पर खड़े होकर लड़कियों को अश्लील इशारे करते हैं, हमारी झुग्गियों पर पेशाब कर देते हैं https://ift.tt/3bZhsze Reviewed by Ranjit Updates on September 15, 2020 Rating: 5

No comments:

Please don't tag any Spam link in comment box

Contact Form

Name

Email *

Message *

Powered by Blogger.

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner